आ ज जब समाचार चैनलों पर ढोंगी बाबाओं ,तथाकथित सन्त - महात्माओं के ढोंग व्यभिचार के तमाम कारनामें हिंदुस्तान के कोने -कोने से उजागर होते हैं ,तो मन खिन्न हो जाता है कि क्या यही हमारा अतीत है। हम किस दिशा में जा रहे है। इतना ही नहीं ऐ तथाकथित बाबा हमारे साधू -संतो की वाणियों को अपना ढ़ाल बनाकर खुद को भगवान घोषित करने से नही चूकते। जब समाचारों में इन नकली बाबाओं का पोल खुलता है, तब तक देर हो चुका होता हैं। लाखों भोले - भाले लोग ठगे जा चुके होते है। इन तथाकथित गुरुओं पर विश्वास कर लोग खुद ही शर्म से झुक जाते है। देश में परमार्थ में घुसे हुए नकली साधुओं की पहचान बहुत जरुरी हैं।
ह मारा देश सदियों से साधू - सन्तों की पावन भूमि रहा। समय -समय पर सन्तों ने जन्म लेकर अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की प्रेरणा दी। परमार्थ का दिखावा कर लोगों को ठगने वाले इन नकली साधुओं की समस्या को सन्त कबीर दास जी ने बहुत पहले ही पहचान लिया था। और बोल पड़े -कबीर कलियुग कठिन हैं ,
साधु न मानै कोय।
कामी क्रोधी मस्खरा ,
तिनका आदर होय।
क बीर दास जी कहते कि सच्चे सन्त को कम ही लोग मानते है ,जो कामी ,क्रोधी और हंसी -मजाक करने में माहिर हैं, उन्हीं का सत्कार हो रहा। कलि खोटा ,जग अंधरा। और सन्त कबीर दास जी ने नकली बाबाओं को कहने से नहीं चुकें -
नाचै - गावै पद कहै ,
नाहीं गुरू सो हेत।
कहै कबीर क्यों नीपजै,
बीज बिहूना खेत ।
ब हुरुपिया बन कर समाज के सामने कथा - कीर्तन में नाचते - गाते है। लोगों को भ्रम में डाल कर पतित कार्य करने से नही चूकते। सन्त कबीर दास जी कहते है -
बाना पहिरे सिंह का ,
चलै भेड़ की चाल।
बोली बोले सियार की,
कुत्ता खावै फाल।
क पटी साधु - वेष धारियों की पोल खोलते हुए, जनमानस को सचेत करते हुये सन्त कबीर साहब कहते है। भेष देख कर आप इन बहुरूपियों की पहचान नहीं कर सकते। पहले आप इनके ज्ञान और मन के मैल की पहचान करे ,तब इन पर विस्वास करें।
भेष देख मत भूलिये ,
बूझि लीजिये ज्ञान।
बिना कसौटी होत नहि,
कंचन की पहचान।
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बोली ठोली मस्खरी ,
हसीं खेल हराम।
मद माया और इस्तरी ,
नहि सन्तन के काम।
क बीर साहेब कहते है कि हास- परिहास , स्त्री - गमन,पद व धन इकढ्ठा करना , यह सन्तो का काम नही है। चालाक व धूर्त साधु वेष धारियों ने जिस प्रकार मठ व शिष्य -शाखा बना कर धन -सम्पदा का दुरूपयोग कर रहे है ,उस पर भी तीखा प्रहार किया -
इसी उदर के कारने ,जग जाच्यो निसि जाम। स्वामीपनो सिर पर चढ़ो ,सर्यो न एकौ काम। इन्द्री एकौ बस नहीं , छोड़ि चले परिवार । दुनियां पीछै यों फिरै , जैसे चाक कुम्हार।
क बीर दास जी कहते है बगुला से कौआ भला है। वह तन - मन दोनों से काला है पर किसी को छलता नही। मन मैला तन ऊजरा ,बगुला कपटी अंग। तासौ तो कौआ भला ,तन मन एकहि रंग। और जन मानस से कहते है कि ऐसे साधू के शरण में जाये ,जिसका मन मलीन न हो -
कवि तो कोटिक कोटि है, सिर के मुड़े कोट।
मन के मूडे देखि करि, ता संग लीजै ओट।
# ब्रहमा नन्द गुप्ता