शुक्रवार, 29 जून 2018

एकता का तीर्थ मगहर : एक अध्ययन

               

           एकता  का  तीर्थ   मगहर   :  एक  अध्ययन १ 


                                 
मगहर  स्थित  सन्त  कबीर  की समाधि  स्थल  व मज़ार 

पू र्वी  उत्तर प्रदेश  का  सम्पूर्ण  इतिहास  आध्यत्मिक  एवं  धार्मिक  उत्कृष्ताओ  से  भरा  पड़ा है | यहां की मिट्टी  के एक -एक कण में आपार सांस्कृतिक  लड़ियाँ  फैली है | सन्त कबीर नगर  जनपद  के पूर्वी छोर पर  आमी (अनोमा ) नदी  के तट पर  मगहर  हिन्दू - मुस्लिम  एकता  का  तीर्थ  कहलाता है|  जहाँ  पर महान  सूफ़ी  सन्त  कबीर दास  का  एक ही प्रांगण में समाधि व मजार दोनों बना हैं | यह स्थान  गो- रखपुर  से २७  किमी .पश्चिम  व  खलीलाबाद  जनपद  मुख्यालय से ७  किमी. पूरब  मुख्य  मार्ग  पर स्थित है |  

 तिहास  के  पन्ने  में मगहर एक  वैभवशाली  स्थल  है। परन्तु इसके विषय  में तमाम  भ्रांतियां  पैदा  की गई। मगहर  मरे  सो गदहा होए। इन्ही भ्रांतियों  को तोड़ने  के लिए सन्त ने मगहर का चुनाव किया। क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम रिदै बस मोरा। जो काशी तन तजै कबिरा, रामे कौन निहोरा। मगहर  के इतिहास पर नजर डाले -
  • वैदिक संस्कृति १५०० ईसा पूर्व  से ६०० ईसा पूर्व के काल को माना गया है। यह भूभाग इच्छवाकु वंश के सूर्यवंशी राजाओं के समय से ही कौशल देश का हिस्सा रहा। 
  • शतपथ ब्राम्हण  में कौशल का उल्लेख है। यह वैदिक आर्यों  का देश रहा। अयोध्या के प्रतापी राजा राम के बेटे कुश ने   कौशल पर राज्य किया। 
  • महाभारत काल में पाण्डु पुत्र पाण्डवों व उनकी माता कुन्ती अज्ञातवाश के समय कुछ समय यहां व्यतित किया। मान्यता है कि ताम्र गढ़ (वर्तमान में तामेश्वेर नाथ  स्थल ) जो मगहर से दछिण पश्चिम लगभग ७ किमी. पर स्थित है। माता कुंती ने भगवान शिव का पूजन व जलाभिषेक किया।
  • एक अन्य घटना का इतिहास है कि राजा विराट के गायों  की रखवाली करते हुए भीम का आगमन। वर्तमान में गोरखनाथ मंदिर के समीप तालाब के पास भीम की लेटी हुई मूर्ति ,जो बहुत पुरानी है। पाण्डवों के आगमन का प्रमाण है। 
  •  बौद्ध ग्रन्थ  अंगुत्तर  निकाय  के अनुसार ६०० ईसा पूर्व भारत वर्ष १६ महा जनपदों में बटा रहा।यह भूभाग  कौशल महा जनपद का अंग था। 
  • ५४० ईसा पूर्व संसारिक समस्याओं से व्यथित होकर ज्ञान की खोज में अपना राज्य त्याग कर सिद्धार्थ (बाद में गौतम बुद्ध ) ने ताम्र गढ़ (वर्तमान में तामेश्वेरनाथ ) में मुंडन करवाया तथा  राजशी वस्त्र व वत्कल का त्याग किया। 
  • अनोमा नदी (वर्तमान में आमी ) बौद्ध साहित्य की प्रसिद्ध नदी है। मुंडन के पश्चात सिद्धार्थ अपने घोड़े कंथक से इस नदी को पार किया। वह स्थान  कुदवा (खुदवा नाला )कहलाया।  मगहर से  सटे ग्राम मुहम्दपुर कठार  के बगल खुदउआ  स्थित है। 
  • ५३४ ईसा पूर्व हर्यक वंश का संस्थापक बिंबसार बौद्ध धर्म का अनुयायी था। उसने मगध पर शासन करते हुये वैवाहिक सम्बन्धों से कई राज्यों को पर अपना अधिकार कर लिया। कौशल को मगध राज्य के अधीन कर लिया। 
  • ४९३ ईसा पूर्व बिंबसार का पुत्र अजात शत्रु मगध पर शासन किया। जनश्रुति है कि अजात शत्रु देशाटन के लिये इधर से गुजर रहा था।अस्वस्थ होने पर  कुछ दिन विश्राम किया।कुछ चरवाहे लूट लिए। नामकरण मार्ग +हर  जो कालांतर मे मगहर हो गया। 
  • २६९ ईसा पूर्व मगध पर अशोक महान  का शासन रहा। 
  • युवान  च्वांग  के वर्णन के अनुसार ताम्र गढ़  के निकट मौर्य सम्राट अशोक के तीन स्तूप स्थित  बताया गया है। महायान डीह ग्राम  के आस -पास तीन डूहो  के रूप मे आज भी विद्यमान है। जो मगहर से दो मील दछिण - पश्चिम स्थित है। *१ 
  • कोपिया टीला खलीलाबाद के उत्तर दिशा मे स्थित है, इस स्थान की खुदाई में कुषाण कालीन  सिक्के ,कांच के चूडिया ,कांच की वस्तुये व मृदभाण आदि मिले।  कुषाण काल के बहुत पहले से यहां काँच उद्योग विकसित था। सिक्कों पर कुषाण  शासक  विम  कडफ़ाइसिस द्वारा प्रयुक्त नंदीपद  ( ऊँ  )जैसी आकृति अंकित है। *२ 
  • ५०० ई. से  ६०० ई. तक यह भूभाग मगध  के नियंत्रण में था। 
  • ६०० ई. में गुप्त शासन के पतन के बाद नया शासक मौखरी हुआ। जो अपनी राजधानी कन्नौज को बनाया। हषवर्द्धन इस वंश का प्रमुख शासक रहा। 
  • ८३६ ई. से ८८५ ई. तक गुर्जर प्रतिहार  मिहिर भोज  का शासन। 
  • १००० ई. में थारू जाति के मदन सिंह का इस भूभाग पर अधिकार। 
  • मगहर  में  थारूओ  का बहुत समय तक अधिपत्य रहा। जिनके प्रमाण मगहर व निकटस्थ घनश्यामपुर   ,मुहम्दपुर  कठार ,मोहद्दीनपुर आदि ग्रामों में फैला है। *३ 
  • ११७० ई. से ११९४ ई. गहड़वाल  वंश जयचन्द  का शासन। 
  • १२०० ई. में मुस्लिम शासक मोहम्मद  गोरी  का अधिकार। कन्नौज तुर्को  के कब्जे में हो गया। 
  • १२२५ ई. में इल्तुतमिश  का बेटा अवध का गवर्नर बना। यह भूभाग अवध के कब्जे में आ गया। 
  • १२७५  ई. में  राजपूत सरनेट (श्रीनेत / सूर्यवंशी ) सर्वप्रथम आये।  मुख्यतः मगहर में  बसें। मगहर में सवरधीर  राज  के पास कोटिया  के बड़े भूभाग पर आज भी अवशेष मौजूद है।*४  
  • राजपूत  वंश के प्रमुख चन्द्रसेन  ने गोरखपुर  व पूर्वी बस्ती से डोम कटारो को खदेड़ा। चन्द्रसेन के बाद उनका पुत्र जयसिंह उत्तराधिकारी बना। सरनेट कठेलवाड़ों  ने बांसी ,मेहदावल व रतनपुर (मगहर ) में शासन।सरनेट  राजा राम सिंह की कुलदेवी समय माता थी। 
  • १३५१  ई. फिरोज तुगलक का दिल्ली पर  शासन। जौनपुर  नगर की स्थापना। १३९४  ई. जौनपुर  के मलिक  सरकार ख्वाज़ा जहां ने विद्रोही जमींदारों  को पराजित  कर अपना राज्य कन्नौज  से  बिहार तक फैलाया। 
  • काशी के लहरतारा  स्थान पर १३९८ ई. में  कबीर साहब जन्म। नीमा और नीरू  के पले  और बढ़े। 
  • १४७९  ई. मे  बहलोल लोदी के  कहने पर   ख़्वाजा  जहां ने जौनपुर  को स्वतन्त्र राजधानी बनाया। 
  • १४९४ ई. में सिकंदर लोदी  का शासन।  १५०४ ई. सिकंदर लोदी  आगरा के  आगमन  के बाद  जौनपुर आया। उस  समय  कबीर  काशी  के सिद्ध संत पुरुष  हो  गये  थे। कुछ विधर्मियों  ने सिकंदर साह से कबीर दास  की शिकायत  की। सिकंदर  ने दंड  देने का असफल प्रयास किया। *५   
  • १५०३ ई. के लगभग मगहर में आगामी १२ वर्षो  तक जल वृष्टि  न होने  के कारण अकाल। 
  • १५१४ ई. में कबीर दास का मगहर आगमन।  नवाब बिजली खान  ने मगहर  में  जल वृष्टि  कराने  हेतु  कबीर दास को ले आये। मगहर  आने की जनमानस  में  तमाम  कथाएँ  हैं। 
  • १५१५ ई. गुरुनानक जी गोरखपुर के गुरु द्वारा जटा शंकर  आये  थे।*६  
  • सिद्ध  बैषणव सन्त केसरदास के भण्डारे में  गुरु नानक  आदि सन्तों  का कबीर दास  से मिलन। केसरदास के नाम पर कसरवल ग्राम का नाम। गोरख तलैया  आज भी प्रसिद्ध। यहाँ आमी  नदी की धारा मुड़ गई हैं। 
  • १५१८ ई. में कबीर दास का प्रयाण। 

           परिसिष्ट सूची :

  1. वी. सी.लाल :जागर्फी  ऑफ द अर्ली बुद्धिज़्म 
  2.  डॉ.आलोक कानूनगो ,डेक्कन कॉलेज पुणे 
  3. ऊसर मगहर : स्मारिका,  मगहर महोत्सव १९९५
  4.  ऊसर मगहर :  ब्रह्मानन्द गुप्ता संपादक 
  5.  गुरु ग्रन्थ साहिब 
  6. गुरु साहब का इतिहास 

                                          सन्त कबीर  की ६२० वी जन्म सती पर विशेष 
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सोमवार, 12 फ़रवरी 2018

तासे तो कौआ भला,तन मन एकहि रंग- सन्त कबीर दास

             आ ज  जब समाचार चैनलों पर ढोंगी बाबाओं ,तथाकथित सन्त - महात्माओं के ढोंग व्यभिचार के तमाम कारनामें हिंदुस्तान के कोने -कोने से उजागर होते हैं ,तो मन खिन्न हो जाता है कि क्या यही हमारा अतीत है। हम किस दिशा में जा रहे है। इतना ही नहीं ऐ तथाकथित बाबा हमारे साधू -संतो की वाणियों को अपना ढ़ाल बनाकर खुद को भगवान घोषित करने से नही चूकते। जब समाचारों में इन नकली बाबाओं का पोल खुलता है, तब तक देर हो चुका होता हैं। लाखों भोले - भाले लोग  ठगे जा चुके होते है। इन तथाकथित गुरुओं पर विश्वास   कर लोग खुद ही शर्म  से झुक जाते है। देश में परमार्थ में घुसे हुए नकली साधुओं की पहचान बहुत जरुरी  हैं।                  

           ह मारा देश सदियों से साधू - सन्तों की पावन भूमि रहा। समय -समय पर सन्तों ने जन्म लेकर अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की प्रेरणा दी।  परमार्थ का दिखावा कर लोगों  को ठगने वाले  इन नकली  साधुओं की समस्या को सन्त कबीर दास जी ने बहुत पहले ही पहचान लिया था।  और बोल पड़े -                                       
                 
                 कबीर कलियुग कठिन हैं ,
                                                       साधु न  मानै  कोय। 
                  कामी   क्रोधी  मस्खरा , 
                                                     तिनका  आदर  होय।

          बीर दास जी कहते कि सच्चे सन्त को कम ही लोग मानते है ,जो कामी ,क्रोधी और हंसी -मजाक  करने में माहिर हैं, उन्हीं का सत्कार हो रहा। कलि खोटा ,जग अंधरा।   और सन्त कबीर दास जी ने नकली बाबाओं को कहने से नहीं चुकें -
                       
                           नाचै - गावै  पद  कहै ,
                                                   नाहीं  गुरू सो  हेत। 
                   कहै कबीर क्यों नीपजै,
                                                   बीज  बिहूना  खेत । 

          हुरुपिया  बन कर समाज के सामने कथा - कीर्तन में नाचते - गाते है। लोगों को भ्रम  में  डाल कर  पतित कार्य करने से नही चूकते। सन्त कबीर दास जी कहते है -

                            बाना पहिरे सिंह का ,
                                                  चलै  भेड़ की  चाल। 
                   बोली बोले सियार की,
                                                   कुत्ता  खावै  फाल।
           
           पटी  साधु - वेष धारियों  की पोल खोलते हुए, जनमानस को सचेत करते  हुये सन्त  कबीर साहब कहते है।  भेष देख कर आप इन बहुरूपियों की पहचान नहीं  कर सकते। पहले आप इनके ज्ञान और मन के  मैल   की पहचान करे ,तब इन पर विस्वास करें।

                            भेष  देख मत भूलिये ,
                                                    बूझि लीजिये ज्ञान। 
                   बिना कसौटी होत नहि, 
                                                     कंचन  की पहचान। 
                                           ****       ****
                   बोली ठोली मस्खरी ,
                                                   हसीं  खेल  हराम।
                   मद माया और इस्तरी ,
                                                   नहि  सन्तन के काम। 
                
               बीर  साहेब  कहते है कि हास- परिहास , स्त्री - गमन,पद व धन इकढ्ठा  करना , यह सन्तो  का काम नही है। चालाक व धूर्त साधु वेष धारियों ने जिस प्रकार मठ व  शिष्य -शाखा बना कर धन -सम्पदा  का दुरूपयोग कर रहे है ,उस पर भी तीखा प्रहार किया -

                 इसी उदर के कारने ,जग जाच्यो निसि जाम।                                                                                                            स्वामीपनो सिर पर चढ़ो ,सर्यो न एकौ काम।                   इन्द्री  एकौ  बस नहीं , छोड़ि चले परिवार ।                                                                                                            दुनियां  पीछै  यों  फिरै , जैसे  चाक  कुम्हार।               

                     बीर  दास जी कहते है बगुला से कौआ भला है। वह तन - मन दोनों से काला है पर किसी को  छलता नही। मन मैला तन ऊजरा ,बगुला कपटी अंग। तासौ तो कौआ भला ,तन मन एकहि रंग।  और  जन मानस से कहते है कि ऐसे साधू के शरण में जाये ,जिसका मन मलीन न हो -


                         कवि तो कोटिक कोटि है, सिर के मुड़े कोट। 
                 मन  के मूडे  देखि करि, ता संग  लीजै  ओट। 
                                                                           
                                                                         #  ब्रहमा नन्द  गुप्ता  

          

                           

                       
                     
                         
                                
              

बुधवार, 4 सितंबर 2013

                           कबीर काव्य  में  श्रम जीवी  वर्ग 

           संत कबीर श्रम जीवी  थे। स्वयं करघा चलाते थे। शायद यही कारण है कि उनके काव्य में अनगिनत स्थानों पर श्रम जीवी वर्ग व उससे जुड़े आजीविका के साधनों का उल्लेख है। चाहे वों अध्यात्मिक रूपकों के रूप में ही क्यों न हों ?

           संत कबीर की रचनाओ में ग्रामीण परिवेश ,जमीन से जुड़े लोग , मेहनतकश सामजिक  वर्ग   व आजीविका के साधन , छोटे -छोटे  कुटीर उद्योग, कुम्हार ,लोहार,सुनार ,बढ़ई ,माली ,धोबी,चमार , जुलाहा ,कोरी ,वणिक आदि का समावेश है। संत कबीर कर्म में विश्वास करते है। 

           लोहार किस तरह लोहें को पीटकर सामान बनाता है ,संत कबीर कहते है -

                       कबीर  केवल  राम    की ,  तू  जिनी  छाडै  ओट। 

                       घण अहऱणि बिचि ल़ोह ज्यू,घणी सहै सिर चोट।  

           और लुहार की भट्टी में लकड़ी  के जलने कों देखे -

                       दौ  की  दाधी  लकड़ी  ठाढी  करै  पुकार।

                       मति बसि पड़ो लुहार कै, ज़ालै दूजी बार। 

          सोनार के पारखी नज़र -

                        कनक कसौटी जैसे कसि लेई सुनारा। 

                        सोधि    सरीर  भयो  तन  सारा।।

          माली  और मालनि का प्रयोग तो कबीर काव्य में कई जगहों पर है -

                         माली  आवत  देखि  करि कलियन करी पुकार। 

           और मालनि किस तरह वेपरवाह होकर जीव हत्या कर रही ,कबीर कहते है -

                         भूली मालनि पाती तोडै ,  पाती - पाती जीव । 

                         जा मूरति कौ पाती तोडै , सों मूरति  न  जीव।   

            कुम्हार  और उसके चाक को देखे -

                         कबीर हरि रस पौ पिया , बाकी रही न थाकि। 

                         पाका कल्स कुम्हार का,बहुरि न चढ़ई चाकि।

            संत कबीर ख़ुद जुलाहा जाति से थे -

                         कहै कबीर सूत भल काता ,रहट़ा नहीं परम पद पाता। 

             कबीर काव्य में बनजारा और बहेलिया भी है -

                           तब काहें भूलौ बनजारे ,अब आयौ चाहै संगि हमारे। 

             चित्रकार मंदिरों पे नक्कासी बना कर जीविकोपार्जन कर रहे -

                           ऊचा मंदिर  धौलहर म़ाटी चित्री पौलि। 

                           एक ऱाम के ऩाव बिन,जंम पड़ेगा रौलि। 

              संत कबीर कहते है तू मंदिर में ख़ूब चित्रकारी कर लों लेकिन राम नाम बिना जीना भी क्या जीना। मूर्तिकार और मूर्ति कों सम्बोधित करते है -

                            ट़ाचनहारै  ट़ाचिया , दै  छाती  ऊपरि पाव। 

                            ज़े तू मुरति सकल है,तौ घड़ण हारै कौ खाव। 

               नट रस्सी फैला कर उस पर करतब दिखा रहा -

                             जैसे नटिया नट करत है ,लम्बी सरद पसारे। 

               कुऎ से पनिहारिन जल निकाल रही और रस्सी खीचने की कला देख़े -

                             ज्यों पनहरिया भरे कुआ जल ,हाथ ज़ोर सिर नावे। 

                संत कबीर के काव्य में समाज के सभी वर्गो को किसी न किसी रूप में अवश्य स्थान मिला है। जिससे उस समय के देश ,काल व  परिस्थितियों को समझने में मदद मिल सकता है। इस तरफ विद्वानों को ध्यान देने की जरुरत है। कबीर काव्य को सिर्फ एक वर्ग या समुदाय विशेष का मान लेना उचित नहीं होगा। यह सर्व समाज का काव्य है। इस पर सबका बराबर अधिकार है ,जिससे समाज को नई चेतना मिले। संत कबीर कहते है -

                             कहरा है  करि बासनी धरिहू  धोबी है  मल धोऊ । 

                             चमारा है करि रंगौअघोरी,जाति पाति कुल खोऊ।

                संत कबीर के काव्य में श्रम का महत्व है। कर्म की प्रधानता है। भूखे सोने से बेहतर है खाने के लिए कुछ मेहनत करो।  

 

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शनिवार, 24 अगस्त 2013

                                 मगहर : कबीर साहब का निर्वाण

                                         अहो मेरे गोविंद तुम्हारा जोर। काज़ी बकिवा हस्ती तोर।

                                           *                *                 *                 *               *            *

                                         तिनी बार पतियारो लीना। मन कठोर अजहू  न पतीना।  

                                                                                                          कबीर ग्रंथावली  पृ -२१० ,रागु  गौड़ *

            कबीर साहब  काशी  में  काज़ी   से कहते  है , अरे काज़ी तुम्हारे तीनों प्रयास असफल हुए। गंगा में डुबाने ,आग में जलाने व हाथी से कुचलवाने के सब प्रयास निष्फल हुए। तेरा कठोर मन अब भी नहीं पिघला। 
अब मै काशी से ऊब गया, अब मै मगहर  जा रहा हूँ। 

                                               पहिले दरसनु मगहर पाईओ ,पुनि कासी बसे आई।  

                                                                                                                                गुरू ग्रंथ साहिब *

              कबीर साहब कहते है काशी तो मै बाद में आया, पहले मगहर में अपने प्रभु का  दरसन कर लिया हू। 

हिरदै  कठोर  मरय़ा बनारसी ,नरक न बचया जाई। हरि का दास मरे मगहर ,सन्ध्या सकल तिराई। 

                                                                                                                              कबीर ग्रंथावली पृ-२२४ 

              साहब कहते है  - कठोर हृदय वाले बनारसी ठग ,काशी में मरने पर भी नरक से नहीं बच सकते। कबीर तो मगहर में भी मर कर अमर रहेगा। और -

                                      किआ कासी किआ मगहर, ऊखरू रामु रिदै जउ होंई। 

                                                                                                               गुरू ग्रंथ साहिब ,रागु धनासरी ३

               मगहर में कबीर साहब के निर्वाण का हाल उनके शिष्य धर्मदास ,जो बाघव ग़ढ (रीवा ) के समीप  के 
रहने वाले थे।  कबीर साहब के पक्के अनुआई थे। लिखते है -

                                        मगहर में लीला एक कीन्हा ,   हिन्दू तुरक़ ब्रत धारी। 

                                        क़बर खोदाय़ परीक्षा लीन्हा ,मिटी गया झगडा भारी। 

                                                                                                                         धर्मदास की शब्दावाली *

                जनमानस में प्रचलित है कि कबीर साहब के निर्वाण के समय नबाब बिजली खां पठान कब्र में गाड़ना और बघेल राजा वीरसेन सिंह शव को हिन्दू प्रथानुसार दाह करना चाहते थे। किन्तु चादर उठाने पर शव के स्थान पर फूल मिले। धर्मदास कहते है -

                                         खोदि क़े देखि क़बुर ,गुरू देह न पाईय़ा। 

                                          पान  फ़ूल  लै हाथ सेन  फिरि  आइया। 

               'मानु मेंटल एन्टिक्टव्टिस आफ़ द नार्थ वेस्टर्न प्राविसेज ' के लेखक डाक्टर फ़यूर ने लिखा है ,संवत १५०७ (१४५०  ई ) में नबाब बिजली खां ने कबीर के कब्र के ऊपर रोज़ा बनवाया था। जिसका जीर्णोद्वार संवत १६२४  (१५६७ ई ) में नबाब  फिदाई खां  ने करवाया। 
                 कबीर साहब  के परवर्ती संत मलूक दास साफ -साफ कहते है -

                        काशी तज गुरू मगहर आये ,दोनों दीन के पीर । 

                        क़ोई गाड़े क़ोई अग्नि जरावै,ढूढा न पाया शरीर। 

                        चार दाग से सतगुरू न्यारा ,अजरों अमर शरीर।

                        दास मलूक सलूक कहत है,खोंजो ख़सम कबीर। 

                और कबीर साहब मगहर के ही होकर मगहर में अमर हों गए। उसी अनोमा (आमी ) के तट पर, जिसके समीप तामेस्वर नाथ में सिद्धार्थ ने राजशी  वस्त्र त्यागा ,मुंडन कराया और कुदवा(अब खुदवा नाला जो मगहर के दख्चिन दिशा में स्थित है इतिहासकार इसे अनोमा नदी कहते है ) पार कर सारनाथ के तरफ प्रस्थान किया।  

 

 



मंगलवार, 6 अगस्त 2013

कहै कबीर भल नरकहि जैहू

                          कासी - मगहर सम  बिचारि       

     संत  कबीर जी का  मगहर आगमन  और  काशी  को छोड़  कर बड़ा ही  रोचक  लगता  है। एकदम  उनकी उलटवासीयों  की तरह। कबीर  कासी के  माहौल से  खुद त्रस्त थे,पीड़ित मन से  कहते है कि -
                           मै  क्यू कासी  तजै मुरारी ।  तेरी सेवा-चोर भये बनवारी ।।
                           जोगी-जती-तपी संन्यासी। मठ -देवल  बसि  परसै कासी।।
                           तीन बार जे नित् प्रति न्हावे। काया भीतरि खबरि न पावे।।
                           देवल  -  देवल  फेरी   देही।  नाम  निरंजन  कबहु  न  लेही।।
                           चरन-विरद कासी को न दैहू। कहै कबीर भल नरकहि जैहू।।  
    दिन में  तीन -तीन बार गंगा में नहा कर ,खूब बड़े -बड़े टीके लगा  कर कासी के मंदिरों  का  चक्कर  लगा कर, अपने को  भगवान  का सबसे प्रिय होने का घमण्ड करने वाले लोगों  के मन में खोंट है। तेरे सेवा में चोर -उचकै  लगे है,मै कासी छोड़ मगहर जा रहा हूँ। इस  कासी की दुर्गति अब नहीं देख सक -ता। और कासी -मगहर  मेरे लिये समान है ,चाहे जहां मरु। और कहते है  क़ि -
                   क्या कासी क्या ऊसर -मगहर, राम  रिदै  बसु  मोरा।
                                                                जो कासी तन तजै कबीरा , रामे  कौन  निहोरा। 
       आदि ग्रंथ में एक पंक्ति है -
                            अब कहु राम कवन गति मोरी। तजिले बनारस मति भई थोरी। 
                            सगल जनमु शिवपुरी गवाइआ।मरती बार मगहर उठि आइया।
     कबीर के मन में कासी के राज -व्यवस्था के प्रति छोभ था ,समाजिक व्यवस्था डगमगा गया था। और कासी छोड़ मगहर आ गए। जो सबसे  न्यारा: है,न कोई  भेदभाव न कोई राग -द्वेस और न कोई वैर -भाव ,इन द्वंदों  से परे  ऊसर- मगहर। एक स्थान से दुसरे स्थान जाने का मन में कष्ट,मन की व्यथा को रोकते नहीं और कहते है - कहै कबीर भल नरकहि  जैहू।
         डॉ राम कुमार वर्मा आदि  कई  विचारकों  ने  कबीर का मगहर के प्रति जो लगाव  है ,उसे कबीर का अपने  जन्म -स्थान के प्रति  भाव  प्रदर्शित  होना बताते है। जो भी हो  मरते वक्त भी  कबीर एकता और  सौहार्द  का जो बीज बोया वह अनन्त काल तक पुष्पित व्  प्लवीत होगा। जो प्रेम  का धागा  संत  कबीर ने बुना उसे  देख मन  कह उठता  है  कि -
                             नाचै  ताना  नाचै  बाना ,  नाचै  कूच  पुराना। 
                                                                      री  माई  कों  बिनै।
                             करगहि बैठि कबीरा नाचे,चूहें काट्या ताना।
                                                                       ऱी  माई  को बिनै। 

                       जो  प्रेम -भाव  का  धागा  कबीर करिघे  पर कात रहे है , उसे कुतरने वाल़े  समाज के चूहों  से  कबीर परेशान  व  हैरान है। और कह  रहे है , अरे इसे किस तरीके  से  इन चूहों  से  बचाया जाए। 
      आदि - ग्रंथ में  रागु रामकली  में  है कि -  तोरे भरोसे  मगहर बसिओ ,मेरे मन की तपति बुझाई।                                                                           पहिले दरसनु मगहर प़ाइओ, पुनि कासी बसे  आई।.
                 कबीर  कहते है कि पहले हम मगहर  में  आप  का  दरसन  पाकर  ही  कासी में  आया  हूँ। 
         आपके  भरोसे   मगहर  जा रहा  हू।  मन  की शांति मुझे  मगहर  में मिलेगी। मुझे  कासी छोड़  देना  ठीक  है।  कबीर  का  मगहर के  प्रति आस्था -भाव व  लगाव से विदित होता है कि कबीर  मगहर से पूर्व परिचित  थे। आज हमें उनके  सब्दों  को आत्मसात  करने की जरुरत है। और  अंत  में  कासी -मगहर  सम  बिचारि। कबीर के लिये चाहें  कासी हो ,चाहें  मगहर  कोई फ़र्क नहीं पड़ता।  
    

रविवार, 23 जून 2013

                            सन्त  कबीर : भारत  में सामाजिक पुनर्जागरण-2 

       सिखों  के प्रसिद्ध पुस्तक  ग्रन्थ साहिब में  सन्त कबीर  पर हुए  अत्याचार  का बड़ा  ही  मार्मिक वर्णन है -
                           गंगे  के लहरिया  में टूट गई जन्जीर , मृग छाला  पर  बैठे  कबीर .
                             कहे  कबीर  कोई संग न साथ , जल - थल  राखत  है  रघुनाथ .                                                                       
              भारत  में भक्ति काल के  संतों  का   भारतीय पुनर्जागरण  में  बड़ा ही योगदान  रहा ,जिसका जन -   मानस पर  गहरा प्रभाव पड़ा .
  • आखिन देखी  का  महत्व .
  • अंध - विस्वास / धार्मिक  विषयो के  स्थान पर कर्म में विस्वास .
  • लोक  भाषा  को  बढ़ावा ,यथा - संस्कृत कूप  गंभीर .
  • अलोच्नातामक  व  अन्वेश / वैज्ञानिक  प्रबृत  पैदा  करना .
  • मानवता वादी  विचार धारा  का  विकास .
  • सामन्त -वाद  का मुखर विरोध .
   सन्त कबीर  अत्याचारी  शासक को यमराज  कहते है - राजा देस बडा परपंची ,रैयत  रहत उजारी .
       

Sant Kabir :Bharat Me Samajik Punrjagran

                 सन्त  कबीर : भारत  में  सामाजिक  पुनर्जागरण 

                                       सन्त  कबीर  दास  की जयन्ती  पर  विशेष  आलेख 

                   इतिहास  में  इसे  अजब  संयोग  ही कहेगे , एक  तरफ  विश्व  के  कई  यूरोपीय  देशों  में  रिनेशा 
(पुनर्जागरण ) हो  रहा  था . तो  दूसरी  तरफ  भारत में  भी  पुनर्जागरण  की  हवा  दछिणी प्रदेशों  में  शुरु  होकर  उत्तरी  प्रदेशों  में बहने  लगा . सदियो  से दबे - कुचले  समाज  में  तत्कालीन  शासक वर्ग , धर्म  के ठेके दारो , मुल्ला  व पंडितो - पुरोहितो  पर  गुस्सा -छोभ  था . जिसे  भारतीय  संतो  ने  विशेष कर  संत  कबीर दास  ने  शोषित वर्ग  की पंक्ति  मे  खड़ा होकर  आवाज  बुलन्द  कर  जनमानस  के  गुस्से  का इजहार  करते  हुए  लोगों  के आत्म- सम्मान  के  लिए  ललकारा और  कहा -

           कबिरा  खड़ा  बाजार  में , लिये  लुकाठी  हाथ . जो  घर  फूके  आपणा ,चले  हमारे  साथ .

उत्तर प्रदेश  के पूर्बी ज़िलों  में लुकाठी  शब्द  आग  से जलते हुये लठे  को  कहते  है ,यहा  लुकाठी  मशाल  का पर्याय  है .जो मशाल  सन्त कबीर  ने  जलाई ,उसे समकालीन व परवर्ती सन्त कबियों  ने कायम रखा . 
यूरोपीय देशो में सामन्त बाद के विरोध और ईश् निन्दा के कारण  कोपेरनिकश ,ब्रूनो ,गेलेलियो  आदि  न जाने कितनों को अपने प्राणों की बलि देनी पड़ी .कितनों को दर -दर की ठोकरे खानी पड़ी .कितनों  को देस निकाला हुआ .
  भारत में सन्त कबीर को भी शासक सिकन्दर लोदी  ने सेख तकी के कहने  पर  गंगा में फेकने व हाथी से कुचलने जैसी सजा दी .                                                                                                              (2 )

एकता का तीर्थ मगहर : एक अध्ययन

                            एकता  का  तीर्थ   मगहर   :  एक  अध्ययन १                                    मगहर  स्थित  सन्त  कबीर  क...