ऊसर मगहर usar maghar
सन्त कबीरदास
शुक्रवार, 29 जून 2018
सोमवार, 12 फ़रवरी 2018
तासे तो कौआ भला,तन मन एकहि रंग- सन्त कबीर दास
आ ज जब समाचार चैनलों पर ढोंगी बाबाओं ,तथाकथित सन्त - महात्माओं के ढोंग व्यभिचार के तमाम कारनामें हिंदुस्तान के कोने -कोने से उजागर होते हैं ,तो मन खिन्न हो जाता है कि क्या यही हमारा अतीत है। हम किस दिशा में जा रहे है। इतना ही नहीं ऐ तथाकथित बाबा हमारे साधू -संतो की वाणियों को अपना ढ़ाल बनाकर खुद को भगवान घोषित करने से नही चूकते। जब समाचारों में इन नकली बाबाओं का पोल खुलता है, तब तक देर हो चुका होता हैं। लाखों भोले - भाले लोग ठगे जा चुके होते है। इन तथाकथित गुरुओं पर विश्वास कर लोग खुद ही शर्म से झुक जाते है। देश में परमार्थ में घुसे हुए नकली साधुओं की पहचान बहुत जरुरी हैं।
ह मारा देश सदियों से साधू - सन्तों की पावन भूमि रहा। समय -समय पर सन्तों ने जन्म लेकर अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की प्रेरणा दी। परमार्थ का दिखावा कर लोगों को ठगने वाले इन नकली साधुओं की समस्या को सन्त कबीर दास जी ने बहुत पहले ही पहचान लिया था। और बोल पड़े -कबीर कलियुग कठिन हैं ,
साधु न मानै कोय।
कामी क्रोधी मस्खरा ,
तिनका आदर होय।
क बीर दास जी कहते कि सच्चे सन्त को कम ही लोग मानते है ,जो कामी ,क्रोधी और हंसी -मजाक करने में माहिर हैं, उन्हीं का सत्कार हो रहा। कलि खोटा ,जग अंधरा। और सन्त कबीर दास जी ने नकली बाबाओं को कहने से नहीं चुकें -
नाचै - गावै पद कहै ,
नाहीं गुरू सो हेत।
कहै कबीर क्यों नीपजै,
बीज बिहूना खेत ।
ब हुरुपिया बन कर समाज के सामने कथा - कीर्तन में नाचते - गाते है। लोगों को भ्रम में डाल कर पतित कार्य करने से नही चूकते। सन्त कबीर दास जी कहते है -
बाना पहिरे सिंह का ,
चलै भेड़ की चाल।
बोली बोले सियार की,
कुत्ता खावै फाल।
क पटी साधु - वेष धारियों की पोल खोलते हुए, जनमानस को सचेत करते हुये सन्त कबीर साहब कहते है। भेष देख कर आप इन बहुरूपियों की पहचान नहीं कर सकते। पहले आप इनके ज्ञान और मन के मैल की पहचान करे ,तब इन पर विस्वास करें।
भेष देख मत भूलिये ,
बूझि लीजिये ज्ञान।
बिना कसौटी होत नहि,
कंचन की पहचान।
**** ****
बोली ठोली मस्खरी ,
हसीं खेल हराम।
मद माया और इस्तरी ,
नहि सन्तन के काम।
क बीर साहेब कहते है कि हास- परिहास , स्त्री - गमन,पद व धन इकढ्ठा करना , यह सन्तो का काम नही है। चालाक व धूर्त साधु वेष धारियों ने जिस प्रकार मठ व शिष्य -शाखा बना कर धन -सम्पदा का दुरूपयोग कर रहे है ,उस पर भी तीखा प्रहार किया -
इसी उदर के कारने ,जग जाच्यो निसि जाम। स्वामीपनो सिर पर चढ़ो ,सर्यो न एकौ काम। इन्द्री एकौ बस नहीं , छोड़ि चले परिवार । दुनियां पीछै यों फिरै , जैसे चाक कुम्हार।
क बीर दास जी कहते है बगुला से कौआ भला है। वह तन - मन दोनों से काला है पर किसी को छलता नही। मन मैला तन ऊजरा ,बगुला कपटी अंग। तासौ तो कौआ भला ,तन मन एकहि रंग। और जन मानस से कहते है कि ऐसे साधू के शरण में जाये ,जिसका मन मलीन न हो -
कवि तो कोटिक कोटि है, सिर के मुड़े कोट।
मन के मूडे देखि करि, ता संग लीजै ओट।
# ब्रहमा नन्द गुप्ता
बुधवार, 4 सितंबर 2013
कबीर काव्य में श्रम जीवी वर्ग
संत कबीर श्रम जीवी थे। स्वयं करघा चलाते थे। शायद यही कारण है कि उनके काव्य में अनगिनत स्थानों पर श्रम जीवी वर्ग व उससे जुड़े आजीविका के साधनों का उल्लेख है। चाहे वों अध्यात्मिक रूपकों के रूप में ही क्यों न हों ?
संत कबीर की रचनाओ में ग्रामीण परिवेश ,जमीन से जुड़े लोग , मेहनतकश सामजिक वर्ग व आजीविका के साधन , छोटे -छोटे कुटीर उद्योग, कुम्हार ,लोहार,सुनार ,बढ़ई ,माली ,धोबी,चमार , जुलाहा ,कोरी ,वणिक आदि का समावेश है। संत कबीर कर्म में विश्वास करते है।
लोहार किस तरह लोहें को पीटकर सामान बनाता है ,संत कबीर कहते है -
कबीर केवल राम की , तू जिनी छाडै ओट।
घण अहऱणि बिचि ल़ोह ज्यू,घणी सहै सिर चोट।
और लुहार की भट्टी में लकड़ी के जलने कों देखे -
दौ की दाधी लकड़ी ठाढी करै पुकार।
मति बसि पड़ो लुहार कै, ज़ालै दूजी बार।
सोनार के पारखी नज़र -
कनक कसौटी जैसे कसि लेई सुनारा।
सोधि सरीर भयो तन सारा।।
माली और मालनि का प्रयोग तो कबीर काव्य में कई जगहों पर है -
माली आवत देखि करि कलियन करी पुकार।
और मालनि किस तरह वेपरवाह होकर जीव हत्या कर रही ,कबीर कहते है -
भूली मालनि पाती तोडै , पाती - पाती जीव ।
जा मूरति कौ पाती तोडै , सों मूरति न जीव।
कुम्हार और उसके चाक को देखे -
कबीर हरि रस पौ पिया , बाकी रही न थाकि।
पाका कल्स कुम्हार का,बहुरि न चढ़ई चाकि।
संत कबीर ख़ुद जुलाहा जाति से थे -
कहै कबीर सूत भल काता ,रहट़ा नहीं परम पद पाता।
कबीर काव्य में बनजारा और बहेलिया भी है -
तब काहें भूलौ बनजारे ,अब आयौ चाहै संगि हमारे।
चित्रकार मंदिरों पे नक्कासी बना कर जीविकोपार्जन कर रहे -
ऊचा मंदिर धौलहर म़ाटी चित्री पौलि।
एक ऱाम के ऩाव बिन,जंम पड़ेगा रौलि।
संत कबीर कहते है तू मंदिर में ख़ूब चित्रकारी कर लों लेकिन राम नाम बिना जीना भी क्या जीना। मूर्तिकार और मूर्ति कों सम्बोधित करते है -
ट़ाचनहारै ट़ाचिया , दै छाती ऊपरि पाव।
ज़े तू मुरति सकल है,तौ घड़ण हारै कौ खाव।
नट रस्सी फैला कर उस पर करतब दिखा रहा -
जैसे नटिया नट करत है ,लम्बी सरद पसारे।
कुऎ से पनिहारिन जल निकाल रही और रस्सी खीचने की कला देख़े -
ज्यों पनहरिया भरे कुआ जल ,हाथ ज़ोर सिर नावे।
संत कबीर के काव्य में समाज के सभी वर्गो को किसी न किसी रूप में अवश्य स्थान मिला है। जिससे उस समय के देश ,काल व परिस्थितियों को समझने में मदद मिल सकता है। इस तरफ विद्वानों को ध्यान देने की जरुरत है। कबीर काव्य को सिर्फ एक वर्ग या समुदाय विशेष का मान लेना उचित नहीं होगा। यह सर्व समाज का काव्य है। इस पर सबका बराबर अधिकार है ,जिससे समाज को नई चेतना मिले। संत कबीर कहते है -
कहरा है करि बासनी धरिहू धोबी है मल धोऊ ।
चमारा है करि रंगौअघोरी,जाति पाति कुल खोऊ।
संत कबीर के काव्य में श्रम का महत्व है। कर्म की प्रधानता है। भूखे सोने से बेहतर है खाने के लिए कुछ मेहनत करो।
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शनिवार, 24 अगस्त 2013
मगहर : कबीर साहब का निर्वाण
अहो मेरे गोविंद तुम्हारा जोर। काज़ी बकिवा हस्ती तोर।
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तिनी बार पतियारो लीना। मन कठोर अजहू न पतीना।
कबीर ग्रंथावली पृ -२१० ,रागु गौड़ *
कबीर साहब काशी में काज़ी से कहते है , अरे काज़ी तुम्हारे तीनों प्रयास असफल हुए। गंगा में डुबाने ,आग में जलाने व हाथी से कुचलवाने के सब प्रयास निष्फल हुए। तेरा कठोर मन अब भी नहीं पिघला।
अब मै काशी से ऊब गया, अब मै मगहर जा रहा हूँ।
पहिले दरसनु मगहर पाईओ ,पुनि कासी बसे आई।
गुरू ग्रंथ साहिब *
कबीर साहब कहते है काशी तो मै बाद में आया, पहले मगहर में अपने प्रभु का दरसन कर लिया हू।
हिरदै कठोर मरय़ा बनारसी ,नरक न बचया जाई। हरि का दास मरे मगहर ,सन्ध्या सकल तिराई।
कबीर ग्रंथावली पृ-२२४
साहब कहते है - कठोर हृदय वाले बनारसी ठग ,काशी में मरने पर भी नरक से नहीं बच सकते। कबीर तो मगहर में भी मर कर अमर रहेगा। और -
किआ कासी किआ मगहर, ऊखरू रामु रिदै जउ होंई।
गुरू ग्रंथ साहिब ,रागु धनासरी ३
मगहर में कबीर साहब के निर्वाण का हाल उनके शिष्य धर्मदास ,जो बाघव ग़ढ (रीवा ) के समीप के
रहने वाले थे। कबीर साहब के पक्के अनुआई थे। लिखते है -
मगहर में लीला एक कीन्हा , हिन्दू तुरक़ ब्रत धारी।
क़बर खोदाय़ परीक्षा लीन्हा ,मिटी गया झगडा भारी।
धर्मदास की शब्दावाली *
जनमानस में प्रचलित है कि कबीर साहब के निर्वाण के समय नबाब बिजली खां पठान कब्र में गाड़ना और बघेल राजा वीरसेन सिंह शव को हिन्दू प्रथानुसार दाह करना चाहते थे। किन्तु चादर उठाने पर शव के स्थान पर फूल मिले। धर्मदास कहते है -
खोदि क़े देखि क़बुर ,गुरू देह न पाईय़ा।
पान फ़ूल लै हाथ सेन फिरि आइया।
'मानु मेंटल एन्टिक्टव्टिस आफ़ द नार्थ वेस्टर्न प्राविसेज ' के लेखक डाक्टर फ़यूर ने लिखा है ,संवत १५०७ (१४५० ई ) में नबाब बिजली खां ने कबीर के कब्र के ऊपर रोज़ा बनवाया था। जिसका जीर्णोद्वार संवत १६२४ (१५६७ ई ) में नबाब फिदाई खां ने करवाया।
कबीर साहब के परवर्ती संत मलूक दास साफ -साफ कहते है -
काशी तज गुरू मगहर आये ,दोनों दीन के पीर ।
क़ोई गाड़े क़ोई अग्नि जरावै,ढूढा न पाया शरीर।
चार दाग से सतगुरू न्यारा ,अजरों अमर शरीर।
दास मलूक सलूक कहत है,खोंजो ख़सम कबीर।
और कबीर साहब मगहर के ही होकर मगहर में अमर हों गए। उसी अनोमा (आमी ) के तट पर, जिसके समीप तामेस्वर नाथ में सिद्धार्थ ने राजशी वस्त्र त्यागा ,मुंडन कराया और कुदवा(अब खुदवा नाला जो मगहर के दख्चिन दिशा में स्थित है इतिहासकार इसे अनोमा नदी कहते है ) पार कर सारनाथ के तरफ प्रस्थान किया।
मंगलवार, 6 अगस्त 2013
कहै कबीर भल नरकहि जैहू
कासी - मगहर सम बिचारि
संत कबीर जी का मगहर आगमन और काशी को छोड़ कर बड़ा ही रोचक लगता है। एकदम उनकी उलटवासीयों की तरह। कबीर कासी के माहौल से खुद त्रस्त थे,पीड़ित मन से कहते है कि -मै क्यू कासी तजै मुरारी । तेरी सेवा-चोर भये बनवारी ।।
जोगी-जती-तपी संन्यासी। मठ -देवल बसि परसै कासी।।
तीन बार जे नित् प्रति न्हावे। काया भीतरि खबरि न पावे।।
देवल - देवल फेरी देही। नाम निरंजन कबहु न लेही।।
चरन-विरद कासी को न दैहू। कहै कबीर भल नरकहि जैहू।।
दिन में तीन -तीन बार गंगा में नहा कर ,खूब बड़े -बड़े टीके लगा कर कासी के मंदिरों का चक्कर लगा कर, अपने को भगवान का सबसे प्रिय होने का घमण्ड करने वाले लोगों के मन में खोंट है। तेरे सेवा में चोर -उचकै लगे है,मै कासी छोड़ मगहर जा रहा हूँ। इस कासी की दुर्गति अब नहीं देख सक -ता। और कासी -मगहर मेरे लिये समान है ,चाहे जहां मरु। और कहते है क़ि -
क्या कासी क्या ऊसर -मगहर, राम रिदै बसु मोरा।
जो कासी तन तजै कबीरा , रामे कौन निहोरा।
आदि ग्रंथ में एक पंक्ति है -
अब कहु राम कवन गति मोरी। तजिले बनारस मति भई थोरी।
सगल जनमु शिवपुरी गवाइआ।मरती बार मगहर उठि आइया।
कबीर के मन में कासी के राज -व्यवस्था के प्रति छोभ था ,समाजिक व्यवस्था डगमगा गया था। और कासी छोड़ मगहर आ गए। जो सबसे न्यारा: है,न कोई भेदभाव न कोई राग -द्वेस और न कोई वैर -भाव ,इन द्वंदों से परे ऊसर- मगहर। एक स्थान से दुसरे स्थान जाने का मन में कष्ट,मन की व्यथा को रोकते नहीं और कहते है - कहै कबीर भल नरकहि जैहू।
डॉ राम कुमार वर्मा आदि कई विचारकों ने कबीर का मगहर के प्रति जो लगाव है ,उसे कबीर का अपने जन्म -स्थान के प्रति भाव प्रदर्शित होना बताते है। जो भी हो मरते वक्त भी कबीर एकता और सौहार्द का जो बीज बोया वह अनन्त काल तक पुष्पित व् प्लवीत होगा। जो प्रेम का धागा संत कबीर ने बुना उसे देख मन कह उठता है कि -
नाचै ताना नाचै बाना , नाचै कूच पुराना।
री माई कों बिनै।
करगहि बैठि कबीरा नाचे,चूहें काट्या ताना।
ऱी माई को बिनै।
जो प्रेम -भाव का धागा कबीर करिघे पर कात रहे है , उसे कुतरने वाल़े समाज के चूहों से कबीर परेशान व हैरान है। और कह रहे है , अरे इसे किस तरीके से इन चूहों से बचाया जाए।
आदि - ग्रंथ में रागु रामकली में है कि - तोरे भरोसे मगहर बसिओ ,मेरे मन की तपति बुझाई। पहिले दरसनु मगहर प़ाइओ, पुनि कासी बसे आई।.
कबीर कहते है कि पहले हम मगहर में आप का दरसन पाकर ही कासी में आया हूँ।
आपके भरोसे मगहर जा रहा हू। मन की शांति मुझे मगहर में मिलेगी। मुझे कासी छोड़ देना ठीक है। कबीर का मगहर के प्रति आस्था -भाव व लगाव से विदित होता है कि कबीर मगहर से पूर्व परिचित थे। आज हमें उनके सब्दों को आत्मसात करने की जरुरत है। और अंत में कासी -मगहर सम बिचारि। कबीर के लिये चाहें कासी हो ,चाहें मगहर कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
रविवार, 23 जून 2013
सन्त कबीर : भारत में सामाजिक पुनर्जागरण-2
सिखों के प्रसिद्ध पुस्तक ग्रन्थ साहिब में सन्त कबीर पर हुए अत्याचार का बड़ा ही मार्मिक वर्णन है -
गंगे के लहरिया में टूट गई जन्जीर , मृग छाला पर बैठे कबीर .
कहे कबीर कोई संग न साथ , जल - थल राखत है रघुनाथ .
कहे कबीर कोई संग न साथ , जल - थल राखत है रघुनाथ .
भारत में भक्ति काल के संतों का भारतीय पुनर्जागरण में बड़ा ही योगदान रहा ,जिसका जन - मानस पर गहरा प्रभाव पड़ा .
- आखिन देखी का महत्व .
- अंध - विस्वास / धार्मिक विषयो के स्थान पर कर्म में विस्वास .
- लोक भाषा को बढ़ावा ,यथा - संस्कृत कूप गंभीर .
- अलोच्नातामक व अन्वेश / वैज्ञानिक प्रबृत पैदा करना .
- मानवता वादी विचार धारा का विकास .
- सामन्त -वाद का मुखर विरोध .
Sant Kabir :Bharat Me Samajik Punrjagran
सन्त कबीर : भारत में सामाजिक पुनर्जागरण
सन्त कबीर दास की जयन्ती पर विशेष आलेख
इतिहास में इसे अजब संयोग ही कहेगे , एक तरफ विश्व के कई यूरोपीय देशों में रिनेशा
(पुनर्जागरण ) हो रहा था . तो दूसरी तरफ भारत में भी पुनर्जागरण की हवा दछिणी प्रदेशों में शुरु होकर उत्तरी प्रदेशों में बहने लगा . सदियो से दबे - कुचले समाज में तत्कालीन शासक वर्ग , धर्म के ठेके दारो , मुल्ला व पंडितो - पुरोहितो पर गुस्सा -छोभ था . जिसे भारतीय संतो ने विशेष कर संत कबीर दास ने शोषित वर्ग की पंक्ति मे खड़ा होकर आवाज बुलन्द कर जनमानस के गुस्से का इजहार करते हुए लोगों के आत्म- सम्मान के लिए ललकारा और कहा -
कबिरा खड़ा बाजार में , लिये लुकाठी हाथ . जो घर फूके आपणा ,चले हमारे साथ .
उत्तर प्रदेश के पूर्बी ज़िलों में लुकाठी शब्द आग से जलते हुये लठे को कहते है ,यहा लुकाठी मशाल का पर्याय है .जो मशाल सन्त कबीर ने जलाई ,उसे समकालीन व परवर्ती सन्त कबियों ने कायम रखा .
यूरोपीय देशो में सामन्त बाद के विरोध और ईश् निन्दा के कारण कोपेरनिकश ,ब्रूनो ,गेलेलियो आदि न जाने कितनों को अपने प्राणों की बलि देनी पड़ी .कितनों को दर -दर की ठोकरे खानी पड़ी .कितनों को देस निकाला हुआ .
भारत में सन्त कबीर को भी शासक सिकन्दर लोदी ने सेख तकी के कहने पर गंगा में फेकने व हाथी से कुचलने जैसी सजा दी . (2 )
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