कबीर काव्य में श्रम जीवी वर्ग
संत कबीर श्रम जीवी थे। स्वयं करघा चलाते थे। शायद यही कारण है कि उनके काव्य में अनगिनत स्थानों पर श्रम जीवी वर्ग व उससे जुड़े आजीविका के साधनों का उल्लेख है। चाहे वों अध्यात्मिक रूपकों के रूप में ही क्यों न हों ?
संत कबीर की रचनाओ में ग्रामीण परिवेश ,जमीन से जुड़े लोग , मेहनतकश सामजिक वर्ग व आजीविका के साधन , छोटे -छोटे कुटीर उद्योग, कुम्हार ,लोहार,सुनार ,बढ़ई ,माली ,धोबी,चमार , जुलाहा ,कोरी ,वणिक आदि का समावेश है। संत कबीर कर्म में विश्वास करते है।
लोहार किस तरह लोहें को पीटकर सामान बनाता है ,संत कबीर कहते है -
कबीर केवल राम की , तू जिनी छाडै ओट।
घण अहऱणि बिचि ल़ोह ज्यू,घणी सहै सिर चोट।
और लुहार की भट्टी में लकड़ी के जलने कों देखे -
दौ की दाधी लकड़ी ठाढी करै पुकार।
मति बसि पड़ो लुहार कै, ज़ालै दूजी बार।
सोनार के पारखी नज़र -
कनक कसौटी जैसे कसि लेई सुनारा।
सोधि सरीर भयो तन सारा।।
माली और मालनि का प्रयोग तो कबीर काव्य में कई जगहों पर है -
माली आवत देखि करि कलियन करी पुकार।
और मालनि किस तरह वेपरवाह होकर जीव हत्या कर रही ,कबीर कहते है -
भूली मालनि पाती तोडै , पाती - पाती जीव ।
जा मूरति कौ पाती तोडै , सों मूरति न जीव।
कुम्हार और उसके चाक को देखे -
कबीर हरि रस पौ पिया , बाकी रही न थाकि।
पाका कल्स कुम्हार का,बहुरि न चढ़ई चाकि।
संत कबीर ख़ुद जुलाहा जाति से थे -
कहै कबीर सूत भल काता ,रहट़ा नहीं परम पद पाता।
कबीर काव्य में बनजारा और बहेलिया भी है -
तब काहें भूलौ बनजारे ,अब आयौ चाहै संगि हमारे।
चित्रकार मंदिरों पे नक्कासी बना कर जीविकोपार्जन कर रहे -
ऊचा मंदिर धौलहर म़ाटी चित्री पौलि।
एक ऱाम के ऩाव बिन,जंम पड़ेगा रौलि।
संत कबीर कहते है तू मंदिर में ख़ूब चित्रकारी कर लों लेकिन राम नाम बिना जीना भी क्या जीना। मूर्तिकार और मूर्ति कों सम्बोधित करते है -
ट़ाचनहारै ट़ाचिया , दै छाती ऊपरि पाव।
ज़े तू मुरति सकल है,तौ घड़ण हारै कौ खाव।
नट रस्सी फैला कर उस पर करतब दिखा रहा -
जैसे नटिया नट करत है ,लम्बी सरद पसारे।
कुऎ से पनिहारिन जल निकाल रही और रस्सी खीचने की कला देख़े -
ज्यों पनहरिया भरे कुआ जल ,हाथ ज़ोर सिर नावे।
संत कबीर के काव्य में समाज के सभी वर्गो को किसी न किसी रूप में अवश्य स्थान मिला है। जिससे उस समय के देश ,काल व परिस्थितियों को समझने में मदद मिल सकता है। इस तरफ विद्वानों को ध्यान देने की जरुरत है। कबीर काव्य को सिर्फ एक वर्ग या समुदाय विशेष का मान लेना उचित नहीं होगा। यह सर्व समाज का काव्य है। इस पर सबका बराबर अधिकार है ,जिससे समाज को नई चेतना मिले। संत कबीर कहते है -
कहरा है करि बासनी धरिहू धोबी है मल धोऊ ।
चमारा है करि रंगौअघोरी,जाति पाति कुल खोऊ।
संत कबीर के काव्य में श्रम का महत्व है। कर्म की प्रधानता है। भूखे सोने से बेहतर है खाने के लिए कुछ मेहनत करो।
$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें